नंदा राजजात उत्तराखण्ड की एक परम्परागत विरासत

देहरादून। उत्तरांचल राज्य में प्रचलित नन्दादेवी यात्रा या जात तक सीमित रखना चाहता हूँ। लोक इतिहास के अनुसार नन्दा गढ़वाल के राजाओं के साथ-साथ कुँमाऊ के कत्युरी राजवंश की ईष्टदेवी थी। ईष्टदेवी होने के कारण नन्दादेवी को राजराजेश्वरी कहकर सम्बोधित किया जाता है। नन्दादेवी को पार्वती की बहन के रुप में देखा जाता है। पूरे उत्तराँचल में समान रुप से पूजे जाने के कारण नन्दादेवी के समस्त प्रदेश में धार्मिक एकता के सूत्र के रुप में देखा गया है। सामान्य लोगों की मान्यता के अनुसार नन्दादेवी दक्ष प्रजापति की सात कन्याओं में से एक थीं। नन्दादेवी का विवाह शिव के साथ होना माना जाता है। शिव के साथ ऊँचे बर्फीले पर्वतों पर नन्दादेवी रहती हैं। पति के साथ होने के सुख के बदले भीषण से भीषण कष्ट वह हंसकर सह लेती है। कहीं-कहीं नन्दादेवी को पार्वती का रुप ही माना गया है। नन्दा के अनेक नामों में प्रमुख है, शिवा, सुनन्दा, शुभानन्दा, नन्दिनी। उत्तरांचल में देवताओं की स्तुति में रात-दिन जगकर गाए जाने वाले गीत को जागर कहते हैं। नन्दादेवी के सम्बन्ध में कई जागरों के अनुसार विभिन्न कथाएँ पायी जाती है। एक जागर में नन्दा को नन्द महाराज की बेटी बताया जाता है। नन्द महाराज की यह बेटी कृष्ण जन्म के पूर्व ही कंस के हाथों से निकलकर आकाश में उड़कर नगाधिराज हिमालय की पत्नी मैना की गोद में पहुँच गई।
एक अन्य जागर में नन्दादेवी को चान्दपुर गढ़ के राजा भानुप्रताप की पुत्री बताया जाता है। एक और जागर में ऐसा वर्णन आता है कि नन्दादेवी का जन्म घ्षि हिमवंत और उनकी पत्नी मैना के घर पर हुआ था। यह सब अलग-अलग धारणायें होते हुए भी नन्दादेवी पर्वतीय राज्य उत्तराँचल के लोक मानस की एक दृढ़ आस्था का प्रतीक है तथा इसे परम्परा के अनुसार निभाकर हर बारहवें वर्ष में राजजात का भव्य आयोजन किया जाता है।
राजजात या नन्दाजात का अर्थ है राज राजेश्वरी नन्दादेवी की यात्रा। गढ़वाल क्षेत्र में देवी देवताओं की जात बड़े धूमधाम से मनाई जाती है। जात का अर्थ होता है देवयात्रा। लोक विश्वास यह है कि नन्दा देवी हिन्दी माह के भादव के कृष्णपक्ष में अपने मैत (मायके) पधारतीं हैं। कुछ दिन के पश्चात उन्हें अष्टमी को मैत से विदा किया जाता है। राजजात या नन्दाजात देवी नन्दा की अपने मैत से एक सजीं संवरी दुल्हन के रुप में ससुराल जाने की यात्रा है। ससुराल को स्थानीय भाषा में सौरास कहते हैं। इस अवसर पर नन्दादेवी को सजाकर डोली में बिठाकर एवं वस्र, आभूषण, खाद्यान्न, कलेवा, दूज, दहेज आदि उपहार देकर पारम्परिक गढ़वाल की विदाई की तरह विदा किया जाता है।
वैसे तो हर साल नन्दाजात का आयोजन की प्रथा है परन्तु बारहवें वर्ष पर भव्य और मनोरंजक राजजात किया जाता है। नन्दाजात प्रतिवर्ष शुक्ल अष्टमी के दिन मनाई जाती है। नन्दा अष्टमी के दिन नन्दा को डोली में बिठाकर विदा किया जाता है। नैनीताल, वैजनाथ और अल्मोड़ा में विशेष धूमधाम से यह उत्सव मनाया जाता है। नैनीताल का प्रसिद्ध नन्दा-सुनन्दा मेला प्रतिवर्ष आयोजन किया जाता है जिसमें नन्दा-सुनन्दा बहनों की विशिष्ट और अनूठी केले के पेड़ से बनी मूर्तियों को-जो कि समस्त भारत में केवल कुमाऊँ में ही बनाई जाती है-डोले में बिठाकर घुमाया जाता है। अनतत मूर्ति को नैनी झील में विसर्जित कर दिया जाता है।

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