ला नीना के प्रभाव से सर्दियों का खतरनाक सायरन चरम पर

देहरादून। मानसून की तबाही अभी ताजा है। इस साल भारी वर्षा, बाढ़ और भूस्खलन ने हिमालयी राज्यों में जो तबाही मचाई उसकी भरपाई में ही कई साल लगेंगे। लेकिन जैसे ही बादल छँटे, अब सर्दी का एक नया डरावना चेहरा सामने आने लगा है। भारतीय मौसम विभाग ने इस वर्ष सामान्य से अधिक कठोर सर्दी की संभावना जताई है। ला नीना प्रभाव के कारण इस बार अत्यधिक ठंड, असामान्य शीतलहरें और भारी हिमपात की आशंका जताई गयी है। इसका सीधा असर हिमालयी राज्यों पर पड़ेगा, जहां हिमस्खलन की घटनाएं बढ़ सकती हैं।
यह केवल यात्रियों और पर्यटकों के लिए ही नहीं, बल्कि स्थानीय लोगों, सेना और निर्माण कार्यों के लिए भी गंभीर खतरा बन सकता है। सियाचिन सहित भारत तिब्बत सीमा स्थित सेना की चौकियांे की चुनौतियों को येे सर्दियां काफी बढ़ा सकती है।
दरअसल, ला नीना एक ऐसी जलवायु घटना है, जो प्रशांत महासागर के पूर्वी भाग में समुद्र की सतह के तापमान में गिरावट के कारण उत्पन्न होती है। यह एल नीनो का विपरीत रूप है। एल नीनो जहां भारत के मानसून को कमजोर बनाता है, वहीं ला नीना उसे प्रबल करता है, परंतु सर्दियों में ठंड को अत्यधिक बढ़ाता भी है। अमेरिकी राष्ट्रीय महासागरीय एवं वायुमंडलीय प्रशासन (एनओएए) के अनुसार, 2025 के अंत तक ला नीना के विकसित होने की 71 प्रतिशत संभावना है, जो दिसंबर 2025 से फरवरी 2026 तक सक्रिय रह सकती है। भारतीय मौसम विभाग के विशेषज्ञों का भी यही अनुमान है कि उत्तर भारत में तापमान सामान्य से दो से तीन डिग्री कम रहेगा, लंबी शीतलहरें चलेंगी और हिमालयी क्षेत्रों में बर्फबारी सामान्य से कहीं अधिक होगी।

हिमालयी राज्यों में एवलांच का डर

इसका अर्थ है कि पश्चिमी विक्षोभ अधिक सक्रिय रहेंगे, जिसके परिणामस्वरूप दिसंबर से अप्रैल तक हिमालयी ढलानों पर तीन से पाँच मीटर तक बर्फ जम सकती है। विशेषज्ञों का कहना है कि कमजोर ला नीना भी बर्फबारी में 20 से 30 प्रतिशत की वृद्धि कर सकता है, जिससे हिमस्खलन की संभावना दोगुनी हो जाती है। जलवायु परिवर्तन ने इस जोखिम को और जटिल बना दिया है। गर्मियों की गर्मी से ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, जबकि सर्दियों में वर्षा के साथ बर्फ गिरने से हिमस्तर अस्थिर होता जा रहा है।
हिमस्खलन तब होता है जब किसी ढलान पर जमा बर्फ, हिमखंड या चट्टान अचानक खिसक पड़ती है। इसके मुख्य कारणों में अत्यधिक बर्फबारी, तापमान में तीव्र उतार-चढ़ाव, मानवजनित गतिविधियाँ जैसे सड़क निर्माण या विस्फोट, और जलवायु परिवर्तन से बढ़ती वर्षा शामिल हैं। चण्डीगढ़ स्थित स्नो एंड एवेलांच स्टडी एस्टैब्लिशमेंट (एसएएसई) के अनुसार, ला नीना के वर्षों में हिमालय में हिमस्खलन की घटनाएं सामान्य वर्षों की तुलना में 15 से 20 प्रतिशत अधिक होती हैं। दिसंबर से मार्च का समय उत्तरमुखी 25 से 45 डिग्री ढलानों वाले क्षेत्रों में एवलांच का खतरा चरम पर माना जाता है।

सदियों की आपदाओं की भयानक यादें

पिछले वर्षों में हिमालय इन भयावह घटनाओं का साक्षी रहा है। फरवरी 2021 में उत्तराखंड के चमोली जिले की ऋषिगंगा घाटी में 27 मिलियन घनमीटर बर्फ और चट्टानों का स्खलन हुआ, जिसने मलबे की बाढ़ का रूप ले लिया। इस हादसे में दो सौ से अधिक लोग मारे गए और परियोजनाओं को हजारों करोड़ रुपये की क्षति हुई।
अक्टूबर 2022 में उत्तरकाशी में नेहरू पर्वतारोहण संस्थान के प्रशिक्षुओं पर हिमस्खलन टूटने से 27  ट्रैकर्स की मौत हुयी। फरवरी 2025 में चमोली के माणा गांव के निकट सीमा सड़क संगठन के शिविर पर बर्फ का पहाड़ टूट पड़ा, जिसमें 54 मजदूर दब गए।
आठ की मृत्यु हो गई और 46 को 36 घंटे के अभियान के बाद ड्रोन और हेलीकॉप्टर की मदद से बचाया गया। अप्रैल 2023 में सिक्किम की लाचेन घाटी में 16 पर्यटक मारे गए और 370 लोगों को बचाया गया। सियाचिन जहां भारत की सेना स्थाई रूप से तैनात है वहां ऐसी घटनायें आम हैं।
दरअसल, ये घटनाएं केवल जानें ही नहीं लेता, बल्कि सड़कें, पुल, विद्युत आपूर्ति और जलस्रोतों को भी महीनों तक ठप कर देता है। वर्ष 2020 से 2025 के बीच 250 से अधिक लोगों की मृत्यु ऐसे हादसों में हुई है।

पश्चिमी हिमालय में सर्वाधिक जोखिम

एवलांच हादसों के लिये हिमालय के पश्चिमी और मध्य भाग सबसे अधिक जोखिम में हैं। उत्तराखंड के चमोली, उत्तरकाशी, बद्रीनाथ और केदारनाथ मार्ग, हिमाचल प्रदेश के मनाली, रोहतांग पास, लाहौल-स्पीति क्षेत्र, जम्मू-कश्मीर के गुलमर्ग, द्रास, कारगिल और सियाचिन ग्लेशियर, तथा सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश के युमथांग और तवांग क्षेत्र अत्यधिक संवेदनशील हैं। ये सभी क्षेत्र 3,000 से 6,000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित हैं, जहां पर्यटन, तीर्थयात्रा और सीमावर्ती सड़क निर्माण लगातार जारी है। इन इलाकों में लगभग एक करोड़ लोग निवास करते हैं, जिनमें लाखों की आजीविका सीधे बर्फ से जुड़ी है। स्थानीय निवासी जैसे चरवाहे, किसान और सेब उत्पादक, बर्फ पर निर्भर हैं, लेकिन हिमस्खलन उनके खेतों और घरों को बर्बाद कर देता है। बर्फबारी पहाड़ी पर्यटन का एक आवश्यक हिस्सा है जो कि मसूरी, औली, शिमला और गुलमर्ग जैसे पर्यटन स्थलों पर लाखों प्य्रटकों को आकर्षित करता है। लेकिन अति होने पर यही बर्फबारी हादसों का कारण भी बनती है। सीमा पर तैनात सैनिकों और सीमा सड़क संगठन के मजदूरों के लिए भी यह घातक स्थिति बनती है।

सावधानी में ही सबसे बड़ा बचाव

हिमस्खलन को रोका नहीं जा सकता, लेकिन सावधानी और तैयारी से इसके प्रभाव को कम किया जा सकता है। एसएएसई और राष्ट्रीय आपदा मोचन बल की सलाह है कि पर्वतीय यात्राओं से पहले हिमस्खलन चेतावनी बुलेटिन देखें, ढलानों से दूर रहें, और सुरक्षा उपकरण जैसे लोकेशन बीकन, जांच छड़ और फावड़ा साथ रखें। गांवों में प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली लगाना और भारी बर्फबारी के बाद कम से कम 48 घंटे तक अनावश्यक आवाजाही से बचना आवश्यक माना जाता है। सरकार को भी सीमावर्ती सड़कों की डिजाइन को सुदृढ़ बनाना, सुरंगें और अवरोधक बनाना, तथा ग्लेशियरों की निरंतर निगरानी सुनिश्चित करनी चाहिए।

2025 में आ चुकीं एवलांच आपदाएं

सन्तोष का विषय है कि भारत में इस दिया में प्रगति हो रही है। इसी साल 28 फरबरी को चमोली के माणा एवलांच हादसे में सेना, आईटीबीपी और एनडीआरएफ ने ड्रोन, थर्मल कैमरा और हेलीकॉप्टर की मदद से 46 मजदूरों को जीवित निकाला। एसएएसई अब 50 से अधिक निगरानी केंद्रों के माध्यम से वास्तविक समय में हिमस्खलन पूर्वानुमान जारी कर रहा है। फिर भी चुनौतियां बाकी हैं। दुर्गम भूभाग, अत्यधिक ठंड और सीमित संसाधन। विशेषज्ञों का कहना है कि जलवायु-अनुकूल नीतियां और जोखिम भरे निर्माण पर रोक ही भविष्य की सुरक्षा की कुंजी हैं।

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