समृद्ध लोक संस्कृति की झलक भैलो बग्वाल

धनौल्टी। उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में भी दीपावली पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। यहां दीपावली को भैलो बग्वाल के रूप में मनाया जाता है। जो अपने आप में अनोखी परंपरा होती है। जिसमें समृद्ध लोक संस्कृति की झलक देखने को मिलती है। ऐसे में अपनी संस्कृति को सहेजने और बचाए रखने के लिए लोग गांव पहुंचकर भैलो खेलते हैं। दीपावली का त्योहार देशभर के साथ ही उत्तराखंड में बड़े धूमधाम के साथ मनाया जाता है। दीपावली से कई दिन पहले से ही त्योहार की तैयारियां शुरू हो जाती है। इस दौरान घरों की साफ-सफाई के साथ मेहमान नवाजी की परंपरा भी देखने को मिलती है। लोग अपने घरों की साफ सफाई करने के बाद नाते रिश्तेदारी में बुलावा भेजा जाता है। पहाड़ों में धनतेरस से ही दीपावली का त्योहार शुरू हो जाता है। धनतेरस में लोग जमकर खरीदारी करते हैं। जबकि, दीपावली के मौके पर प्रवासी लोग भी सपरिवार अपने-अपने गांव पहुंचते हैं। इसके बाद शुरू होती है मेहमान नवाजी। जहां सभी लोग गांव की पंचायती चौक में एकत्रित होकर एक-दूसरे को दीपावली की बधाई देते हैं।
झुंड बनाकर पूरे गांव में एक-दूसरे के घर जाकर सामूहिक रूप में दीपावली के मौके पर बने पारंपरिक पकवान खाते हैं। इस दिन लोग विशेष रूप से उड़द की दाल के पकोड़े और गहत से भरी पूड़ी पापड़ी बनाते हैं। सामूहिक भोज से पहले सभी अपने-अपने घरों में पूजा अर्चना करते हैं। साथ ही भगवान को घर में पके पकवानों का भोग लगाकर सुख समृद्धि की कामना करते हैं।
इसके बाद सभी एक-दूसरों के घरों में जाकर पकवानों का आदान-प्रदान करते हैं। इसके बाद पारंपरिक सामूहिक नृत्य के साथ शुरू होता है भैलो। भैलो खेलने के लिए ग्रामीण खेतों में जमा होते हैं। जहां सभी मिलकर भैलो खेलते हैं। इस दौरान लोग भैलो यानी जलती लकड़ी को सिर के ऊपर भी घुमाते हैं। साथ वाद्य यंत्रों की थाप पर सामूहिक पारंपरिक लोक नृत्य भी करते हैं। जो ग्रामीणों की सामूहिक एकता को भी दर्शाता है।
उत्तराखंड में दिवाली यानी बग्वाल पर भैलो खेलने की परंपरा है। भैलो को चीड़ की लकड़ी से बनाया जाता है। जो काफी ज्वलनशील होता है। जिसे तैयार करने के लिए चीड़ की लकड़ियों को लंबाई में चीरा जाता है, फिर बंडल बनाया जाता है। इसके बाद घास की बेलनुमा रस्सी के एक सिरे पर मजबूती से बांधा जाता है।
मान्यता के अनुसार, एक परिवार में विषम संख्या यानी 1,3,5,7,9 में भैलो बनाया जाता है। दीपावली के दिन सबसे पहले तिलक लगाकर भैलो की पूजा अर्चना की जाती है। भैलो की पूजा के बाद घर आए मेहमानों के साथ भोजन किया जाता है। इसके बाद सभी ग्रामीण पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ गांव के बाहर आंगन, खुली जगह या खेतों में जाकर सामूहिक नृत्य करते हैं। साथ ही आपस में भैलो खेलते हैं। भैलो को अपने-अपने अंदाज में चारों ओर घुमा कर पारंपरिक नृत्य किया जाता है। भैलो उत्तराखंड की समृद्ध लोक संस्कृति का प्रतीक भी माना जाता है। जिसे खेलना भी एक कला है।
इस बार पहाड़ो में दीपावली कहीं 19-20 अक्टूबर को तो कहीं 20-21 अक्टूबर को मनाई गई। उत्तराखंड में दीपावली भैलो बग्वाल के रूप में मनाई जाती है। पहाड़ी क्षेत्रों मे दीपावली में दो दिन भैलो खेला जाता है। इसके अलावा दीपावली के 11 दिन बाद इगास पर्व भी मनाया जाता है। जबकि, जौनसार बावर क्षेत्र में तो एक महीने बाद भी दिवाली मनाई जाती है। जिसे बूढ़ी दिवाली कहा जाता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *